Tuesday, September 20, 2016

स्वामी जैतराम जी महाराज


ज्योतिपुंज बन्दीछोड़ परम संत गरीब दास जी के प्रांगण को श्री जैतराम रूपी स्फुलिंग ने संवत् १८०४ में आलोकित किया था | आपने इस मायाजगत में अपने अनुज श्री तुरतीराम जी के साथ युगल रूप में पहले प्रवेश किया था | गरीब दास जी की प्रणाली के ये दो स्फुलिंग ‘नाद’ और ‘बिंदी’ प्रशाखाओं के अग्रणी प्रमाणित हुए | जैतराम जी सन्यास ग्रहण कर, अपनी योग्यता व साधना
सिद्धि के आधार पर, ‘नाद’ प्रणाली के प्रमुख शिष्य और एक धुरधामी संत के रूप में स्थापित हुए| श्री तुरती राम जी श्री छुड़ानी धाम कि गुरु-गद्दी के उतराधिकारी बन कर ‘बिंदी’ प्रणाली के अग्रज शिष्य के रूप में ख्याति को प्राप्त हुए | संत जैतराम जी को वेदान्त, योगशात्र और पोराणिक गाथाओं का वास्तविक ज्ञान प्राप्त था |

श्री छुड़ानी धाम की गुरु गद्दी
श्री छुड़ानी धाम आचार्य गरीब दास जी महाराज के जीवन काल में ही प्रसिद्ध हो गया था | आप की शिष्य मण्डली की संख्या अपार थी | साधनारत शिष्य सदेव सतगुरु सेवा में लगे रहते थे | साधु-संतो व दूरस्थ स्थानों से सेवको का आवागमन लगा रहता था | इस प्रकार श्री छुड़ानी धाम संतमत का मुख्य केंद्र बन चूका था | जब गरीब दास जी महाराज का अपने निजधाम जाने का समय निकट आया, तब आपने धाम की जिमेदारी किसी योग्य पात्र को सोपने की इच्छा प्रकट की |

श्री जैतराम जी संत स्वभाव के पूर्णतया योग्य पुत्र थे| परन्तु आप जी की धर्मपत्नी माता श्री मोहिनी जी की इच्छा थी कि यह पद श्री तुरती राम जी को सोप दिया जाये | वह भी अपने पिताश्री जी द्वारा दीक्षित उच्च कोटि के साधक थे | शायद माताश्री जैतराम जी को भ्रमणशील विद्वान साधक समझती थी | इसलिए आपने जैतराम जी से आज्ञापालन का वचन ले कर उन्होंने तुरतीराम जी को उतराधिकारी स्वीकारने की बात कही | जिसे सन्त जैतराम जी ने स्वीकार कर लिया |

करोंथा निवास
छुड़ानी गाँव श्री गरीब दास जी की ननिहाल थी | आपका पैतृक गाँव करोंथा जिला रोहतक था | पूर्णसंत के रूप में आपकी ख्याति ने जब करोंथा गाँव के गालियारों को भी अपने नाद से आप्लावित किया तो करोंथा गाँव वासी छुड़ानी धाम पहुंचे और सतगुरु गरीब दास जी से प्रार्थना की “कि अब आप अपने पैतृक गाँव की संतप्त आत्माओ के उदहार के लिए करोंथा चले” | श्री गरीब दास जी ने उनके निवेदन को बड़ी आत्मीयता से सुना और कहा कि “जैतराम जी को ले जाओ, यह मेरा ही रूप है | इसकी सेवा करना, यह आपको सद्मार्ग दिखलायेगा और आपको मुक्ति मार्ग को प्रशस्त करेगा” | और इस तरह संत श्री जैतराम जी करोंथा आ गये |

सन्यास-ग्रहण
श्री जैतराम जी की शादी के बाद एक सुपुत्र हुआ | करोंथा निवास के कुछ वर्ष पश्चात आपने संयास लेने का निश्चय किया और और अपने परिवार को श्री छुड़ानी धाम छोड़ने चले गये | सन्यास ग्रहण करने के पश्चात आप पूर्णतया वीतरागी संत बन गए| लंगोटी लगा कर नंगे बदन रहने लगे | जटाएं बढ़ा ली और धूनी रमाने लगे |

चमत्कारिक घटनाएँ
लुट-पट के उदेश्य से विचरण करते एक दल ने करोंथा गाँव को लुटने की योजना बनाई | इस प्रकार सिमित धावों को “धाड़” का आना कहा जाता था | जब धाड़ के आने की सुचना गाँव पहुंची तो सारे ग्रामवासी भयभीत होकर स्वामी जैतराम जी की शरण में आ गये| आपने कहा कि “चिंता की कोई बात नही | धाड़ का सामना करेंगे, मै आगे रहूँगा आप सब मेरे पीछे रहना | कोई मुझसे आगे न निकले” |

आपने एक सूती चादर को अपने गले व छाती पर झोली के रूप में बंधा और धाड़ से मुकाबला करने गाँव से बहर निकल आये | धाड़ वालो ने हल्ला-गुल्ला मचाते हुए गोलियों की बोछार कर दी| आप गोलियों की बोछार के सामने अडिग खड़े रहे | एक हरिजन जोश में आपसे आगे निकल गया उसको गोली लगी और वह वंही ढेर हो गया | गोलियां खत्म होने पर तेजस्वी पुरुष को अडिग खड़े देख कर धाड़ भाग खड़ी हुई | सब शांत हो जाने पर आपने चादर खोली तो उसमे से धाड़ द्वारा चलाई हुई गोलीयां जमीन पर गिर पड़ी | लोग चकित रह गये और श्री जैतराम जी की जय-जयकार करने लगे |

करोंथा का परित्याग
एक बार की बात है कि “करोंथा में आपसी मन मुटाव के कारण दो दलों में झगडा हो गया| एक आदमी मारा गया | आपने अपने तपोबल से उस व्यक्ति के प्राण तो स्थिर कर दिये परन्तु इस घटना ने आपके अंतर्मन को झकझोर दिया” | आप पंजाब की ओर रमत पर निकल गये और फिर कभी करोंथा वापिस नही लोंटे | वर्तमान में आप जी की याद में करोंथा में छतरी साहिब बनी हुई है |

पंजाब प्रवास
इस बार आप जलंधर में पहुँच गए | वँहा फिल्लोर का राजा क्रूर स्वभाव का था | साधू संतो को फांसी पर लटका देता था | आपने यह सुना तो रजा के अविश्वास को विश्वास में परिवर्तन करने का निश्चय किया| आप रजा के प्रति-दिन आने जाने वाले स्थान पर धूनी रमा कर बैठ गये | राजा की पालकी वँहा पहुंची तो धूनी रमाये हुए साधू को देख कर राजा का पारा चढ़ गया और क्रोध में नंगी तलवार लेकर वह राजा सन्त जैतराम जी को मरने के लिए आगे बढ़ा परन्तु जैसे ही आपकी नजरे उस राजा से मिली तो तलवार राजा के हाथ से छुट गई और वह मूर्तिवत आप जी को देखता ही रह गया | तब आप जी ने कहा “क्या हुआ राजन, तलवार हाथ से क्यों छुट गई”? सन्त महाराज की वाणी सुनकर राजा की चेतना लोटी, तब वह श्री जैतराम जी की तेजस्विता से प्रभावित हो चूका था, आगे बढ़ कर जैतराम जी के चरणों में गिर पड़ा और माफ़ी मांगने लगा | संत जैतराम जी ने उसे सांत्वना दी और अपने उपदेश से उसकी संतप्त आत्मा को शांति प्रदान की | इस प्रकार उस स्थान में किल्लोर का राजा आपका पहला शिष्य बना| नुर्म्ह्ल में आपका एक डेरा वर्तमान में है |
आपकी शिष्य परम्परा में एक सन्त साधुराम जी हुए है| उन्होंने अपने गुरु महाराज मनसाराम जी की पावन स्म्रति में स्वामी मनसाराम मिशन के अंतर्गत सन १८४६ में “धर्मार्थ आयुर्वेदिक ओषधालय” स्थापित किया जो वर्तमान में भी संचालित है| नूर महल से आगे लाहोर की ओर रामत करते हुए वार्षिक मेले पर श्री छुड़ानी धाम पहुंच गए | वँहा से लोट कर म्ह्तपुर पहुँच गए | यह स्थान नुर्म्ह्ल से ८ मिल दूर स्थित है| म्ह्तपुर के नवाब के साथ आपकी ज्ञानगोष्ठी हुई जिससे वह आपके मुरीद बन गया | उसने आश्रम बनवाने के लिए श्री जैतराम जी के नाम से जमीन दान दी | फिल्लोर में अभी भी आपका डेरा वर्तमान है| यह भी ज्ञात हुआ है कि “आपने लाहोर में भी एक डेरे की स्थापना की थी” | अपने जीवन के अंतिम वर्षो में श्री जैतराम जी पंजाब प्रान्त में रामत करते हुए असंख्य जीवों को चेताने में लगे रहे | म्ह्तपुर में आपकी समाधि है|

   


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